गिद्ध (vultures): भारत में गिद्धों की बड़ी संख्या में मौत होना, भारत के पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी बन चुकी है। भारत में 1990 के दशक के मध्य में लाखों की संख्या में रहने वाली इन पक्षियों की आबादी अब लगभग शून्य हो गई है। भारत में इन गिद्धों की संख्या में गिरावट के कुछ अनपेक्षित परिणाम भी हुए हैं। एक नए अध्ययन के अनुसार हैरान कर देने वाली जानकारी सामने निकल कर आई है कि, गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण भारत में 500,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई है। आइए इस चौंकाने वाली जानकारी पर गहराई से नजर डालते हैं।
भारत में गिद्धों की आबादी में उल्लेखनीय गिरावट
बीबीसी रिपोर्ट के अनुसार, 1990 के दशक में भारत में गिद्धों की संख्या लगातर घटनी शुरू हुई। इसका मुख्य कारण डाइक्लोफेनाक नामक दवा को बताया गया है। यह दवा भारत में गायों के लिए दर्द निवारक के रूप में उपयोग की जाती थी और यह दवा सस्ती होने के कारण किसान इस दवा का इस्तमाल इसका व्यापक रूप से करते थे। लेकिन, यही सस्ती दवा गिद्धों के लिए बेहद खतरनाक साबित हुई है। यह बात सभी जानते हैं कि, गिद्ध जानवरों के सड़ते शवों को खाते हैं। और यदि किसी जानवर को यह दवा दी जाती है और उसके शव को गिद्ध खाते हैं, तो उनकी किडनी खराब हो जाती है और वे मर जाते हैं।
टाइम्स ऑफ इंडिया के रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में एक दशक में गिद्धों की आबादी 50 मिलियन से घटकर कुछ हजार ही रह गई है, जो पहले करोड़ों में हुआ करती थी। ‘बर्ड गाइड्स’ के मुताबिक ग्रिफॉन गिद्ध प्रजाति सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है। रिपोर्ट बताती है कि, 1992 से 2007 के बीच ग्रिफॉन गिद्ध प्रजाति की आबादी में 99.9 प्रतिशत की कमी आई है। 2006 में भारत ने डाइक्लोफेनाक दवा पर भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। भारत सरकार द्वारा इस दवा पर प्रतिबंध लगाने से कुछ क्षेत्रों में गिद्धों की मृत्यु दर में कमी आयी है, लेकीन फिर भी स्थिती गंभीर बनी हुई है। कहा जा रहा है कि, कुछ प्रजातियाँ अभी भी विलुप्त होने के कगार पर हैं। आउटलेट स्टेट ऑफ इंडियाज़ बर्ड्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, गिद्धों की कम से कम तीन प्रजातियों की आबादी में 91 से 98 प्रतिशत तक की गिरावट आई है।
गिद्धों की आबादी घटने से पांच लाख लोगों की मौत कैसे हुई?
गिद्धों की आबादी घटने से पांच लाख लोगों की मौत कैसे हुई। यह काफी सोच में डालने वाला सवाल है। इसकी जांच करने के लिए अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन ने एक अध्ययन किया। अमेरिकन इकोनॉमिक एसोसिएशन के जर्नल में एक नए अध्ययन के अनुसार, गिद्धों की आबादी में गिरावट के कारण 2000 और 2005 के बीच भारत में पांच लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई। इन असामयिक मौतों से हर साल 70 अरब का नुकसान हो रहा है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, यह अध्ययन अनंत सुदर्शन और इयाल फ्रैंक द्वारा भारत में किया गया था। सुदर्शन वारविक विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर और ईपीआईसी में वरिष्ठ फेलो हैं, और फ्रैंक शिकागो विश्वविद्यालय में एक पर्यावरण अर्थशास्त्री हैं। सुदर्शन और फ्रैंक ने भारत में 600 से अधिक जिलों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड की जांच की। जांच से यह बात सामने निकल कर आई है कि, जीन जिलों में गिद्धों की आबादी ना के बराबर है वही सबसे ज्यादा संक्रमण के कारण लोगों की मृत्यु हुई है।
उन्होंने भारत के कुछ गिद्ध-संक्रमित जिलों में हुई मौतों की तुलना ऐतिहासिक रूप से कम गिद्ध आबादी से की। यह तुलना जीवित गिद्धों और निर्जीव गिद्धों के बीच की गई थी। अपने जांच में उन्होंने पानी की गुणवत्ता समेत अन्य चीजों की भी जांच की। बीबीसी के अनुसार, उनके द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि जिन क्षेत्रों में गिद्धों की संख्या में गिरावट आई, वहां दर्द निवारक दवाओं की बिक्री में वृद्धि हुई और मृत्यु दर में चार प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि बड़ी मात्रा में पशुधन और शवों वाले शहरी क्षेत्रों में मृत्यु दर सबसे अधिक थी।

आख़िर ऐसा क्यों हुआ?
इसे समझने के लिए हमें बीमारी के प्रसार और उसमें गिद्धों की भूमिका को जानना होगा। ‘Science.org’ के मुताबिक, रोगग्रस्त शवों को खाने से गिद्धों की संख्या कम हो गई। गिद्धों की अनुपस्थिति में आवारा कुत्तों की संख्या बढ़ी और रेबीज की घटनाएं बढ़ीं। गिद्ध एक तरह से हमारे ‘स्वच्छता दूत’ हैं। मृत जानवरों के निपटान के लिए भी किसान गिद्धों पर निर्भर हैं। गिद्धों की अनुपस्थिति के कारण किसानों के सामने मृत पशुओं के निपटान की समस्या उत्पन्न हो गई। इससे बीमारीयां फैल गई।
सुदर्शन ने कहा कि, “यह मैंने पहली बार भारत में देखा।” उन्होंने कहा कि, उन्होंने शहर की सीमा के बाहर कई सारे मृत मवेशियों के ढेर देखे, जिन्हे आवारा कुत्ते और चूहे खा रहे थे। उन्होंने आगे कहा कि, भारत सरकार ने इस कचरे के निपटान के लिए रसायनों का उपयोग अनिवार्य कर दिया है। इससे जलमार्ग प्रदूषित हो गये। लेखकों ने बताया कि गिद्ध किस प्रकार प्रकृति का संतुलन बनाये रखते हैं। फ़्रैंक ने बीबीसी को बताया, “गिद्धों को प्रकृति का ‘स्वच्छता का दूत’ माना जाता है।” क्योंकि- ये हमारे पर्यावरण से बैक्टीरिया और रोगजनक मृत जानवरों को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके बिना बीमारियाँ फैल सकती हैं।” उन्होंने आगे कहा कि, “मानव स्वास्थ्य में गिद्धों की भूमिका वन्यजीवों की सुरक्षा के महत्व को रेखांकित करती है।”
विशेषज्ञों का क्या कहना है?
अनंत सुदर्शन और इयाल फ्रैंक द्वारा किए गए अध्ययन से विशेषज्ञ काफी प्रभावित हैं। पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य अर्थशास्त्री अथेंडर वेंकटरमनी ने science.org को बताया कि यह रिपोर्ट काफी सराहनीय है। इंस्टीट्यूट फॉर मेडिटेरेनियन स्टडीज के संरक्षण वैज्ञानिक एंड्रिया सेंटेंजेली ने कहा कि, यह डेटा उपायों में तेजी लाएगा। “यदि आप उन्हें संख्याएँ देते हैं, तो नीति और संरक्षण उपायों में तेजी लाना आसान होगा।” स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के पारिस्थितिक अर्थशास्त्री मार्शल बर्क ने कहा कि, यह अध्ययन अन्य प्रजातियों पर भी लागू हो सकता है। इस तरह के तरीके पारिस्थितिक अर्थशास्त्रियों को मानव स्वास्थ्य पर अन्य प्रजातियों के प्रभाव की जांच करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं।
गिद्धों को बचाने के उपाय
भारत सरकार ने भी गिद्धों की आबादी में गिरावट को रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। 2006 में भारत सरकार ने डाइक्लोफेनाक दवा पर प्रतिबंध लगने के बाद वैकल्पिक दवाओं के उपयोग को प्रोत्साहित किया है। साथ ही, सरकार ने गिद्धों के प्राकृतिक आवास की रक्षा और उनकी खाद्य श्रृंखला को संतुलित करने के लिए विशेष तरीके विकसित किए हैं। इसके अलावा, भारत सरकार ने गिद्धों के पुनर्वास और उनकी प्रजातियों को पुनर्जीवित करने के लिए विशेष कार्यक्रम भी चलाए हैं।
गिद्धों का महत्व एवं भविष्य
आपको बता दें कि, गिद्धों को हमारे प्रकृति के सफाई तकनीशियन के रूप में जाना जाता है। उनकी अनुपस्थिति पारिस्थितिक संतुलन को बाधित करती है और मानव स्वास्थ्य को सीधे प्रभावित करती है। इसलिए पारिस्थितिक दृष्टि से गिद्धों की रक्षा करना और उनकी गिरावट को रोकना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए सभी को आगे आना चाहिए।
गिद्धों के महत्व और उनके संरक्षण के प्रयासों के कारण ही यह उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में गिद्धों की आबादी फिर से बढ़ेगी और पारिस्थितिक संतुलन बहाल हो जाएगा। इस मुद्दे पर अधिक जागरूकता पैदा करने और संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और संतुलित पर्यावरण बनाए रखा जा सके।